विक्रम संवत 1781 में प्रयागराज इलाहाबाद कुंभ में घटित एक सच्ची घटना

प्रयागराज इलाहाबाद में त्रयोदशी के कुंभ स्नान का पर्व-दिवस था। कुंभ में कई अखाड़ेवाले, जति-जोगी, साधु-संत आये थे। उसमें कामकौतुकी नामक एक ऐसी जाति भी आयी थी जो भगवान के लिए ही राग-रागिनियों का अभ्यास किया करती थी तथा भगवद्‌गीत के सिवाय और कोई गीत नहीं गाती थी। उन्होंने भी अपना गायन- कार्यक्रम कुंभ मेले में रखा था।श्रृंगेरी मठाधीश श्री सोमनाथाचार्यजी भी इस कामकौतुकी जातिवालों के संयम और राग रागिनियों में उनकी कुशलता के बारे में जानते थे, इसलिए वे भी वहाँ पधारे थे। उस कार्यक्रम में सोमनाथाचार्यजी की उपस्थिति के कारण लोगों को विशेष आनंद हुआ और जब गुणमंजरी देवी भी आ पहुँची तो उस आनंद में चार चाँद लग गये।गुणमंजरी देवी ने चान्द्रायण और कृच्छ्र व्रत किये थे। शरीर के दोषों को हरनेवाले जप-तप और संयम को अच्छी तरह से साधा था। लोगों ने मन-ही-मन उसका अभिवादन किया।गुणमंजरी देवी भी केवल गीत ही नहीं गाती थी, वरन् उसने अपने जीवन में दैवी गुणों को इतना विकसित किया था कि जब चाहे अपनी दैवीय सखियों बुला सकती थी, जब चाहे बादल मंडरवा सकती थी, बिजली चमका सकती थी। उस समय उसकी ख्याति दूर-दूर तक पहुँच चुकी थी।कार्यक्रम आरम्भ हुआ। कामकौतुकी जाति के आचार्यों ने शब्दों की पुष्पांजलि से ईश्वरीय आराधना का माहौल बनाया। अंत में गुणमंजरी देवी से प्रार्थना की गयी।गुणमंजरी देवी ने वीणा पर अपनी उँगलियों रखीं। माघ का महीना था। ठण्डी ठण्डी हवाएँ चलने लगीं। थोड़ी ही देर में मेघ गरजने लगे, बिजली चमकने लगी और बारिश का माहौल बन गया। आनेवाली बारिश से बचने के लिए लोगों का चित्त कुछ विचलित होने लगा। इतने में सोमनाथाचार्यजी ने कहा:”बैठे रहना। किसीको चिंता करने की जरूरत नहीं है। ये बादल तुम्हें भिगोयेंगे नहीं। ये तो गुणमंजरी देवी की तपस्या और संकल्प का प्रभाव है।”संत की बात का उल्लंघन करना मुक्तिफल को त्यागना और नरक के द्वार खोलना है। लोग बैठे रहे।32 राग और 64 रागिनियों हैं। राग और रागिनियों के पीछे उनके अर्थ और आकृतियाँ भी होती हैं। शब्द के द्वारा सृष्टि में उथल-पुथल मच सकती है। वे निर्जीव नहीं हैं, उनमें सजीवता है। जैसे ‘एयर कंडीशनर’ चलाते हैं तो वह आपको हवा से पानी अलग करके दिखा देता है, ऐसे ही इन पाँच भूतों में स्थित दैवी गुणों को जिन्होंने साध लिया है, वे शब्द की ध्वनि के अनुसार बुझे दीप जला सकते हैं, वृष्टि कर सकते हैं- ऐसे कई प्रसंग आपने हमने देखे सुने होंगे। गुणमंजरी देवी इस प्रकार की साधना से सम्पन्न देवी थी।माहौल श्रद्धा-भक्ति और संयम की पराकाष्ठा पर था। गुणमंजरी देवी ने वीणा बजाते हुए आकाश की ओर निहारा। घनघोर बादलों में से बिजली की तरह एक देवांगना प्रकट हुई। वातावरण संगीतमय नृत्यमय होता जा रहा था। लोग दंग रह गये ! आश्चर्य को भी आश्चर्य के समुद्र में गोते खाने पड़े, ऐसा माहौल बन गया !- ऋषिलोग भीतर-ही-भीतर अपने सौभाग्य की सराहना किये जा रहे थे। मानों, उनकी आँखें इस दृश्य को पी जाना चाहती थीं। उनके कान उस संगीत को पचा जाना चाहते थे। उनका जीवन उस दृश्य के साथ एकरूप होता जा रहा था…। ‘गुणमंजरी, धन्य हो तुम !’ कभी वे गुणमंजरी को धन्यवाद देते हुए उसके गीत में खो जाते और कभी उन देवांगना के शुद्ध-पवित्र नृत्य को देखकर नतमस्तक हो उठते !कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। देखते-ही-देखते गुणमंजरी देवी ने देवांगना को विदा दी। सबके हाथ जुड़े हुए थे, आँखें आसमान की ओर निहार रही थीं और दिल अहोभाव से भरा था। मानों, प्रभु- प्रेम में, प्रभु की अ‌द्भुत लीला में खोया-सा था…श्रृंगेरी मठाधीश श्री सोमनाथाचार्यजी ने हजारों लोगों की शांत भीड़ से कहा:’सज्जनो ! इसमें आश्चर्य की कोई आवश्यकता नहीं है। हमारे पूर्वज देवलोक से भारतभूमि पर आते और संयम, साधना तथा भगवत्प्रीति के प्रभाव से अपने वांछित दिव्य लोकों तक की यात्रा करते। जनलोक, तपोलोक, सत्यलोक (ब्रह्मलोक) तक की यात्रा करने में सफल होते थे।

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